कंतित शरीफ़


सामप्रदायिक सद्भावना के प्रतिक हजरत ख्वाजा इस्माइल चिश्ती अजमेर शरीफ वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के भांजे हैं। ऐसी मान्यता है कि जो लोग अजमेर नहीं जा पाते उन्हें ख्वाजा इस्माइल चिश्ती की दरगाह पर सजदा करने से वह फल स्वतः मिल जाता है…….’

“ख्वाजा इस्माइल चिश्ती की दरगाह”

सदियों से भारत महान संत, महात्माओं व सूफियों की धारती रहीं है, जिन्होंने इंसनियत के टूटे धागों को जोड़कर लोगों को मानवता की सेवा करने व नेकनियती की राह पर चलने की प्रेरणा दी है। हजरत ख्वाजा इस्माइल चिश्ती भी ऐसे ही संतों में गिने जाते हैं। ख्वाजा साहब का पवित्र दरगाह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद में स्थित है।

मिर्जापुर मां विन्ध्यवासिनी शक्ति पीठ के लिए पूरे भारत में विख्यात है। इस शक्तिपीठ से लगभग दो-तीनइस गांव के खुले भू-भाग में हजरत ख्वाजा इस्माइल चिश्ती की दरगाह है, जहां हर वर्ष सालाना उर्स लगता है। ख्वाजा साहब के कारण कंतित शरीफ के नाम से प्रसिद्ध इस गांव में लगने वाला उर्स मेला सामाजिक सद्भावना की मिसाल पेश करता आया है।

इस उर्स मेले में पूरे भारतवर्ष से भारी संख्या में हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई आदि सभी धार्मों के लोग जियारत करने आते हैं। मुरादें मांगते हैं तथा पूरी होने पर चादर चढ़ाते हैं और सिरनी बांटते हैं। इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि बाबा की मजार पर उर्स मेला आरम्भ होने के पूर्व पहली चादर हिन्दू परिवार द्वारा चादर चढ़ाने के बाद मेला शुरू होता है। तीन दिनों तक चलने वाले इस मेले में हिन्दू परिवार द्वारा पहला चादर चढ़ाने की प्रथा सदियों पुरानी है।

लगभग 40-50 वर्षो से, चादर चढ़ाने का काम नगर के कसरहट्टी मोहल्ला निवासी हिन्दू कसेरा परिवार के जवाहर लाल कसेरा करने लगे। तब से उन्हीं के परिवार द्वारा मजार पर चादर चढ़ायी जाती है। 7

जन साधारण की मान्यता है कि जो शख्स अजमेर के ख्वाजा गरीब नबाज की दरगाह तक नहीं पहुँच पाते हैं, वे कंतित शरीफ बाबा की दरगाह में मन्नत मांगते हैं और उसके पूरा होने पर चादर चढ़ाते हैं। इससे उन्हें स्वतः ही अजमेर शरीफ वाले बाबा की दुआ प्राप्त हो जाती है।

मिर्जापुर वाले हजरत ख्वाजा सैयद इस्माइल चिश्ती इन्हीं अजमेर वाले ख्वाजा नवाज के सगे भांजे थे। इनका जन्म अरबी तारीख 13 सावानुल मुआज्ज्म 579 हिजरी दिन सोमवार की सुबह संजरिस्तान (ईरान) में हुआ था। इनके पिता हजरत ख्वाजा सैयद इसहाक कादरी बड़े पीर साहब शेख अब्दुल कादिर जिलानी बगदादी के साहबजादे के मुरीद थे और उन्हीं से खिलाफत भी हासिल थी।ख्वाजा इस्माइल चिश्ती ने अपने वालिद से मजहब की तालीम हासिल की थी। बताते हैं ख्वाजा गरीब नवाज को मदीने वाले हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लाहों अली मुसल्लम ने वसारत दी, “ऐ मोइनुद्दीन, तुम अजमेर जाओ।“ मदीने वाले हजरत की वसारत पर ख्वाजा गरीब नवाज चलने लगे तो इनकी बहन उम्मुल खैर का लाड़ला बेटा इस्माइल चिश्ती भी अपने वालिद-वालिदा से मामा के साथ जाने की इजाजत मांगने लगे। इस्माइल चिश्ती के वालिद-वालिदा ने न केवल उन्हें इजाजत दी बल्कि वे भी खुदा की बंदगी के लिए उनके साथ चलने को तैयार हो गए।

यह नूरानी काफिला जगह-जगह पड़ाव डालता हुआ लाहौर पहुंचा। यहां कुछ दिनों तक कयाम (विश्राम) किया। दौराने कयाम ख्वाजा इस्माइल चिश्ती के वालिद हजरत ख्वाजा सैयद इसहाक कादरी बहुत सख्त बीमार हो गए। इसी बीमारी के दौरान कुछ दिनों बाद वह अल्लाह को प्यारे हो गए। आज भी लाहौर में उनकी मजार शरीफ मौजूद है।

इसके बाद यह काफिला आगे बढ़ा और विभिन्न जगहों से होते हुए अजमेर पहुंच गया। अजमेर पहुँचने के बाद गरीब नवाज ने इस्माइल चिश्ती को अवधा की तरफ जाने का आदेश दिया।

ख्वाजा गरीब नवाज के आदेश पर खुदा की बंदगी करते हुए ख्वाज इस्माइल चिश्ती अपने परिवार व कुछ अनुयायियों के साथ विभिन्न जगहों पर होते हुए लखनऊ पहुंच गए। इन्हें लखनऊ आए अभी चन्द महीने ही बीते थे कि एक दिन स्वप्न में ख्वाजा गरीब नवाज ने इस्माइल चिश्ती से कहा, “अब तुम मिर्जापुर की तरफ कूच करो। वहां लोगों को तुम्हारी सख्त जरूरत है, क्योंकि वहां के लोगों पर राजा के जुल्म का कहर टूट रहा है। हर व्यक्ति एक-दूसरे के खून का प्यासा है।

ख्वाजा गरीब नवाज की वसारत पर ख्वाज इस्माइल चिश्ती लखनऊ से मिर्जापुर की तरफ चल पड़े। बताते है, उस समय गहरवार राजपूत वंश शासन परम्परा में अवध्राज के अंर्तगत शासित राज्य में राजा दानव राय का शासन था। दानव राय प्रतापी और न्याय प्रिय शासक के रूप में जाना जाता था, इसलिए उसे राज दइया नाम से प्रसिद्धि मिली थी।  पौराणिक आख्यानों के अनुसार कंतित नाग राजाओं की राजधानी हुआ करती थी। यह राजा दइया की भी राजधानी थी।

उसका विशाल किला ओेझला नदी के किनारे से विन्ध्यवासिनी तक स्थित था। किले के उत्तरी छोर पर उस समय चेतगंज के समीप से गंगा बहती थी। राजा दइया ने अपनी रानियों के स्नान के लिए गंगा से मिलता हुआ एक नाला बनवा रखा था, जो ओझला नदी में मिलता था।

राज दइया प्रतापी होने के साथ ही आततायी भी था। उसने गंगा के जल को स्पर्श करने पर एक समुदाय विशेष के लोगों पर पाबंदी लगा रखी थी। राजा की आज्ञा न मानने वाले को दण्डित किया जाता था। उसका मानना था कि हिन्दू धर्म के अलावा अन्य लोगों के स्पर्श से गंगा अपवित्र हो जाएगी। राजा की तानाशाही इतनी बढ़ गयी कि ओझला में समुदाय विशेष के लोगों के स्नान पर रोक लगा दी गयी।

ख्वाजा गरीब नवाज की वसारत पर जब इस्माइल चिश्ती साहब ने मिर्जापुर में कदम रखा तो उन्होंने सर्वप्रथम अपना पड़ाव कंतित गांव में स्थित शाही मस्जिद में किया। वह यहीं पर नमाज पढ़ते, इबादत करते और लोगों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते।

विन्ध्यवासिनी की गोंद में प्रकृति के वैभव से परिपूर्ण गंगा के तट पर स्थित कंतित गांव ने ख्वाजा साहब का मन जीत लिया। ख्वाजा साहब को जब राजा दइया के कठोर जनहित विरोधी फैसलों की जानकारी हुई तो उन्होंने कंतित को ही अपनी कर्मभूमि बनाकर पीडित मानवता का उद्धार करने की ठान ली।

ख्वाजा साहब ने पहले अपने उपदेशों से लोगों में फैले भ्रम को दूर करने का प्रयास किया, लेकिन इससे उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने अपना चमत्कार दिखाना प्रारम्भ कर दिया। बताते हैं, ख्वाजा के अनुयायी एक दिन गंगा नदी के तट पर पहुंचे तो घाटन देव नामक एक सिपहसालार ने उन्हें रोक दिया।

 


“ख्वाजा साहब की मजार”

यह जानकारी जब ख्वाजा साहब को हुई तो उन्होंने अपने प्रभाव से घाट पर रखे पत्थर के हाथी से सजीव रूप में गंगा की लहरों में रात्रि स्नान करने के बाद उसकी चिघांड सुनवाई। बाबा के इस चमत्कार की चारों तरफ चर्चा होने लगी। राजा के सिपहसालारों ने यह जानकारी राजा को दी तो उसने ख्वाजा साहब को युद्ध के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया। शान्तिप्रिय ख्वाजा साहब यह नहीं चाहते थे। वे अपने चमत्कारों से राजा का मन बदलने को प्रयास करते रहे।

लेकिन दिन पर दिन राजा का व्यवहार ख्वाजा साहब के प्रति कठोर होता गया। अब तो उन्हें बार-बार सिपहसालारों एवं सौनिकों द्वारा परेशान भी किया जाने लगा। आखिरकार जब ख्वाजा साहब ने सोच लिया कि राजा दइया नहीं मानने वाला है, तो उन्होंने अपने वजू के पात्र को अल्लाह का ध्यान कर पलट दिया। उसके पलटते ही जैसे भूचाल आ गया और राजा का पूरा किला तहस-नहस हो गया। इसके अवशेष आज भी कंतित के गजिया में गंगा नदी के किनारे दिखाई पड़ता हैं।

राजा के आतंक से मुक्ति के बाद भी जीवनभर ख्वाजा साहब कंतित गांव में ही रहे और इसी जगह को अपना समझ कर लोगों को नेकनियती की राह पर चलने की प्ररेणा देते रहे।

छः रजक 671 हिजरी जुमे (शुक्रवार) की भोर में ख्वाजा साहब का इंतकाल हो गया। बाद में लोगों ने यहां पर इनकी मजार बना दी। बताते है, ख्वाजा इस्माइल चिश्ती की मजार पर लगनेवाले उर्स मेले में हिन्दू परिवार द्वारा पहला चादर चढ़ाने का सिलसिला देवी अख्तार के जमाने से शुरू हुआ जो आज तक अनवरत चला आ रहा है।

 

ख्वाजा के प्रति देवी अख्तार की आस्था के बारे में भी एक दिलचस्प कहानी है। बताते हैं कि देवी अख्तार प्रतिदिन शाम के समय काम-धाम से खाली होने के बाद अपनी पत्नी से डलिया तैयार करवाते थे। उसमें फूल-माला, अगरबत्ती, दीपक आदि पूजा की सामग्री होती थी। उसे लेकर वह पूजापाठ के लिए घर से निकल जाते थे और रास्ते में पड़ने वाल सभी मंदिर, मस्जिद, मजार पर विधिवत पूजा-पाठ करके कंतित शरीफ मजार पर जाते थे।

एक दिन इत्तेफाक से काम-धन्धे में फस जाने के कारण उन्हें कुछ देर हो गई। उस दिन मौसम भी कुछ खराब था, फिर भी वह पूजा-पाठ और सजदा करने लिए घर से निकल गए। जगह-जगह पूजापाठ करते-करते रात्रि के लगभग 10 बज गए। फिर वह ख्वाजा साहब का सजदा करने कंतित की तरफ चल पड़े

उस समय रास्ते में पड़ने वाले ओझला नदी में पुल नहीं बना था। रह-रहकर बरसात होने लगती थी। अपनी धुन के पक्के देवी अख्तार के कदम तेजी के कंतित की तरफ बढ़े जा रहे थे। बरसात के कारण ओझला नदी उफान पर थी, पर वह हताश नहीं हुए और पानी में उतर गए। अभी वह थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि एक गड्ढ़े में पैर चले जाने से डलिया उनके हाथ से छूट कर पानी में गिर गई और लहरों के साथ बहने लगी।

निराश होकर देवी अख्तार ने ख्वाजा साहब की मजार की दिशा में देखा ही था कि लहरों के चक्रव्यूह में फस कर उनके पूजा की डलिया वापस उनके पास आ गई और पानी का बहाव भी कम हो गया। देवी अख्तार आराम से ख्वाजा साहब का सजदा कर वापस अपने घर आ गये।

इन सबके अलावा भी बाबा को मानने वाले बड़ी धूम-धाम से प्रत्येक उर्स मेले में दागर-चादर चढ़ाते हैं। इनमें एक परिवार हैं छोटा मिर्जापुर निवासी हाफिज मौलाना निसार अहमद चिश्ती निजामी का। आज से लगभग 125 वर्ष पूर्व इनके वंशज मुहम्मद गाजी ने अपनी किसी मनौती के पूर्ण होने पर बाबा के मजार पर चादर चढ़ानी शुरू की। इनके बाद इन्हीं के परिवार के भग्गल खलीफा इसे आगे चलाते चले आए। बाद में इनके पुत्र रहमतुल्ला ने यह दायित्व निभाया। बाद में उनके छोटे भाई सल्लामतुल्ला तो बाबा को इतना मानने लगे कि वह अपना अधिक-से-अधिक समय ख्वाजा साहब की मजार पर ही देने लगे। अब उनके वंशज पूरी श्रद्धा के साथ इस परम्परा को निभा रहे हैं।



 

ख्वाजा साहब के पास ही जहरत हाफिज लौंगिया पहलवान की भी मजार है। बताया जाता है यह ख्वाजा साहब से भी उम्रदराज थे। माना जाता है कि यह भी ख्वाजा साहब के साथ ही आये थे। ऐसी मान्यता है कि ख्वाजा साहब की जियारत करने के बाद इनकी जियारत करना बहुत जरूरी है।

लोगों का विश्वास है कि मानवता के कल्याण को समर्पित गरीब नवाज ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सगे भांजे ख्वाजा इस्माइल चिश्ती की मजार पर अपना दुखड़ा रोने से तमाम लोगों का भला होता रहा है। बैऔलादों को औलाद, दरिद्र को धन-धान्य से भरने जैसी कई कहानियां ख्वाजा साहब से जुड़ी है।

बताते है एक व्यापारी अपनी सारी जमा-पूजी लगाकर कुछ सामान खरीद कर व्यापार करने जा रहा था। रास्ते में लुटेरे पूरा ट्रक सहित माल लूट ले गए। निराश व्यापारी बाबा की चौखट पर अपना दुखड़ा राने लगा। बाद में उसे लूटा गया माल ट्रक साहित वापस मिल गया। उसने इसे ख्वाजा साहब का चमत्कार मानकर उनकी मजार का जीर्णोद्धार करवा दिया।

विन्ध्याचल का शक्तिपीठ हिन्दु धार्मावलम्बियों के लिए जितनी आस्था का प्रतीक है, उतनी ही मान्यता कंतित के मजार को भी प्राप्त है। यह सभी धर्मों की आस्था का प्रतीक है। श्रद्धा और विश्वास से बाबा की चैखट पर मन्नत मांगने से बाबा उसे अवश्य पूरी करते हैं।

 

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